अगर-मगर के बीच डोलती गोवंश रक्षा
डॉ..पुष्पेंद्र दुबे
भारत में गोरक्षा का प्रश्न अत्यंत
संवेदनशील है। पिछले दिनों देश में हुए घटनाक्रम में यह बात एक बार फिर सिद्ध हुई।
इतने नाजुक मसले पर अपरिपक्व तरीके से विचार व्यक्त करने का यह पहला अवसर होगा। इस
प्रश्न को लेकर देश में ऐसी बयानबाजी की गयी, जिसने
बुद्धिजीवियों के ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। इस देश के प्राणाधार गोवंश के
बारे में इतनी अज्ञानता अचानक नहीं है, बल्कि आजादी के बाद अपनायी गयी विकास प्रक्रिया का नतीजा
है। आज के सारे व्यवहार में ग्रामाभिमुख चिंतन का अभाव इन बयानवीरों में दिखाई
देता है। समाचार पत्रों के अनेक अग्रलेखों में गोरक्षा से संबंधित अनेक तथ्य दिए
गए, परंतु
उनका चिंतन बूढ़े पशुओं की देखभाल पर आकर रुक गया। अनेक तर्क-कुतर्कों से यह सिद्ध
करने का प्रयास किया गया कि गोरक्षा जैसे प्रश्न पर चिंतन करना आज के जमाने में
कालबाह्य है। आज जबकि केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार है, तब
गोहत्याबंदी पर पूर्ण प्रतिबंध को लेकर अगर-मगर की नीति अपनायी जा रही है। गोमांस
निर्यात पर रोक लगाने के लिए ‘व्यावहारिकता’ का तर्क दिया जा रहा है। मांस निर्यात पर प्रतिबंध लगाने
में न तो किसी प्रकार के संविधान संशोधन विधेयक की आवश्यकता है और न ही किसी
आंदोलन की राह देखने की जरूरत है। यह नीतिगत मुद्दा है जिसे सरकार तत्काल प्रभाव
से लागू कर सकती है। लेकिन ‘डालर’ का लालच और तथाकथित विकास को निर्धारित करने वाले मानदंड
सालों से सरकार को कदम उठाने से रोक रहे हैं। अब जबकि पूर्ण बहुमत हासिल हो गया है, तब ‘व्यावहारिकता’ का अडंगा
लगाया जा रहा है। देश में बढ़ती महंगाई और किसानों की आत्महत्या के लिए भारत की
मांस निर्यात नीति भी जिम्मेदार है। सरकार मशीनीकरण और खेती के आधुनिकीकरण के लिए देशी
और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए उदार नीतियां बना रही हैं। मौसम की मार और महंगाई
के आगे किसान बेबस है। ऐसे में गोवंश रक्षा और मांस निर्यात पर प्रतिबंध के अलावा
और कौन-सा रास्ता सरकार के पास शेष रहता है ? ‘जय
जवान जय किसान’ के नारे के बल पर जिस भारत ने खाद्यान्न के क्षेत्र में
आत्मनिर्भरता हासिल की थी, आज हम पुनः परावलंबी होते जा रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता
तो गरीबों के लिए प्रोटीन का सबसे अच्छा साधन दाल को आयात नहीं करना पड़ता। ऐसा
जान पड़ता है कि भारत के जो गांव आज थोड़े बहुत अपनी जरूरतों के मामले में
स्वावलंबी हैं, आदर्श गांव में बदलने पर वे पूरी तरह शहरों पर आश्रित
हो जाएंगे। गोवंश को केंद्र में रखे बिना गांव की जो भी योजना बनाई जाएगी, वह
अपूर्ण और गांव को परावलंबी बनाने वाली सिद्ध होगी। योजनाकारों को कृषि और ग्रामीण
सभ्यता के रक्षण के लिए तत्काल सलाह-मशविरे की ओर कदम बढ़ाना चाहिए, जिससे
राजनीतिक हितों से उपर उठकर देशहित में समग्र चिंतन और कार्य किया जा सके।
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