इक्कीसवीं सदी की हिंदी: संदर्भ और चुनौतियां
भारतीय हिंदी परिषद का 42वां अधिवेशन संपन्न
डॉ.पुष्पेंद्र दुबे
भारतीय हिंदी परिषद इलाहबाद का 42वां अधिवेशन राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में 12 और 13 दिसंबर को संपन्न हुआ। इस अधिवेशन का मुख्य विषय इक्कीसवीं सदी की हिंदी:
संदर्भ और चुनौतियां था। इस अधिवेशन में देश-विदेश के 500 प्रतिभागियों ने भाग लिया। अधिवेशन में विद्वान वक्ताओं का सम्मिलित स्वर यही
था कि भाव और विचार की अभिव्यक्ति के लिए एकमात्र सशक्त माध्यम भाषा ही है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के युग में हिंदी विश्वस्तर पर संपर्क भाषा बनने में
पूर्ण सक्षम है। आजादी के आंदोलन में हिंदी ने अपनी ताकत से पूरे देश में
स्वतंत्रता की चेतना को जाग्रत किया। हिंदी को निर्विवाद रूप से पूरे देश ने
स्वीकार किया। आजादी के बाद बहुभाषीय भारतीय समाज में भाषा को लेकर विवाद की
स्थिति निर्मित होती रही है। हिंदी के समक्ष चुनौतियां विद्यमान हैं। घरेलू स्तर
पर भाषाई अस्मिता के नाम पर बंगला, तमिल, कन्नड़, मलयालम को हिंदी के विरोध में खड़ा किया जा रहा है
तो दूसरी ओर हिंदी की बोलियां भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि को भी हिंदी के खिलाफ उकसाया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर हिंदी को अंग्रेजी के साथ द्वंद्व के लिए उभारा जा रहा है। संस्कृतनिष्ठ
भाषा के आग्रही हिंदी में संस्कृत के शब्दों को यथावत स्वीकार करने के पक्ष में
हैं तो अधिकांश हिंदी को सरल रूप में स्वीकार करने को तैयार बैठे हैं। अंग्रेजी को
अंतर्राष्ट्रीय भाषा मानते हुए उसके शब्दों को ज्यों का त्यों अपनी भाषा में ध्वनि
व्यवस्था के अनुसार बनाकर अपना लेना चाहिए, इसे मानने वाले भी बहुत लोग हैं। लेकिन यह प्रवृत्ति भाषा के लिए खतरनाक हो
सकती है। इसे अपनाने के कारण ही आज ‘हिंग्लीश’ भाषा सभी जगह दिखाई दे रही है। अधिवेशन में उपस्थित
वक्ताओं ने हिंदी के समक्ष चुनौतियों की चर्चा करते हुए कहा कि हिंदी को विश्वस्तर
पर प्रतिष्ठित करने के लिए हमें सुधार की शुरुआत घर से करना होगी। आज घरों में जिस
प्रकार से अंग्रेजी का बोलबाला है। माता-पिता अपने बच्चों को जिस सांचे में ढाल
रहे हैं, उससे भाषा के साथ-साथ संस्कृति को भी खतरा पैदा हो
गया है। एक तरफ हिंदी विश्व की ओर बढ़ चली है। दुनिया के 200 विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा का अध्यापन किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र
संघ में हिंदी दस्तक दे रही है। इसके लिए भारत सरकार हर स्तर पर प्रयास कर रही है
तो दूसरी ओर हमारे देश की विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षा अंग्रेजी के मोहपाश
में तीव्रता से जकड़ती जा रही है। आज भी उच्च स्तरों पर विज्ञान विषय की शिक्षा का
माध्यम अंग्रेजी ही है। अपनी भाषा में विचार न करने से हमारे यहां मौलिक खोज और
शोध का अभाव आज भी दिखाई दे रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी भाषा को लेकर
व्यक्तिगत प्रयास किए जा रहे हैं, परंतु शासन के स्तर पर आज भी
अंगरेजी ही प्रथम पायदान पर है। इसके बावजूद आज हिंदी का बढ़ता दायरा इस बात के लिए
आश्वस्त करता है कि वह विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है।
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