संस्थाएं नारायण परायण बनें
विनोबा
मैं जरा एकांत मंे रहने वाला मनुष्य हूं। लेकिन जेल में तो समाज में ही रहना हुआ, और उसमें सोचने का काफी मसाला मिल गया। वहां सब तरह के लोगो से सम्पर्क हुआ। उसमें कांग्रेस वाले थे, समाजवादी थे, फार्वर्ड ब्लाक वाले और दूसरे भी थे। देखा कि ऐसा कोई खास दल नहीं, जिसमें दूसरें दलों की तुलना में अधिक सज्जनता दिखाई देती हो। जो सज्जनता गांधीवालों मे दिखाई देती है, वही दूसरों में भी दिखाई देती है, और जो दुर्जनता दूसरों में पाई जाती है वह इनमें भी दिखाई देती है। जब मैंने देखा कि सज्जनता किसी एक पक्ष की चीज नहीं तब सोचने पर इस निर्णय पर पहुंचा कि किसी खास पक्ष या संस्था में रह कर मेरा काम नहीं चलेगा। सबसे अलग रह कर सज्जनता की सेवा मु-हजये करनी चाहिए।
जेल से छूटने के बाद यह विचार मैंने गांधीजी के सामने रखा। उन्होंने अपनी भाषा में कहा -ंउचय ‘तेरा अभिप्राय मैं सम-हजय गया। तू सेवा करेगा लेकिन अधिकार नहीं रखेगा। यह ठीक ही है।’ इसके बाद जिन जिन संस्थाओं में मैं था, उनसे स्तीफा देकर अलग हो गया। वे संस्थाएं मु-हजये प्राण समान प्रिय थीं। उनके उद्देश्यों और कार्यक्रमों को अमल में लाने की कोशिश बरसों तक मैं करता रहा था। उनसे अलग होते समय दुःख जरूर हुआ, लेकिन आनन्द का भी अनुभव किया। क्योंकि उन संस्थाओं की मदद तो मैं करने वाला ही था।
गांधीजी की मृत्यु के बाद सेवाग्राम में हुई सभा में हमने तय किया कि अपनी संस्था को किसी व्यक्ति का नाम देना ठीक नहीं होगा। इसलिए गांधी-ंउचयसंघ जैसे नामों के बदले ‘सर्वोदय समाज’ ही नाम रखा गया।
‘संघ’ न कहते हुए जो ‘समाज’ शब्द रखा है वह साहित्यिक दृष्टि से नहंीं, बल्कि इसके पीछे एक विचार है। ‘संघ’ शब्द में विशिष्ट अर्थ है। उसमें व्यापकता की कमी है। इसके विपरीत ‘समाज’ व्यापक है और ‘सर्वोदय’ शब्द के कारण उसकी व्यापकता परिपूर्ण हो जाती है। अगर ‘संघ’ नाम रखा जाता तो वह छोटी -ंउचयसी संस्था बन जाती। फिर उसमें कोई लिया जाता, तो कोई न भी लिया जाता। उसके नियम बनते, अनुशासन रखा जाता और उसे न मानने वालों के विरूद्ध अनुशासन भंग की कार्यवाहियां होती। संघ तो एक ऐसी संस्था है, जिसमें विशिष्ट व्यक्तियों को ही अवसर मिलता है। उसमें वह व्यापकता और स्वतंत्रता नहीं होती, जो मनुष्य के विकास के लिए जरूरी है।
मैंने ऐसी कई संस्थाएं देखी हैं, जिनका आरंभ तो अच्छे उद्देश्य से हुआ, लेकिन आगे उनके कार्याें में दोष उत्पन्न होने लगे। फिर उन दोषों का बचाव किया जाता है। वे छिपाकर भी रखे जाते हैं। फिर वृत्ति बदल जाती है और टुकड़े होने लगते हैं। मु-हजये टुकड़े नहीं चाहिए, अख्ंाड आनन्द का अनुभव मु-हजये लेना है।
मेरा अपना बुनियादी विचार है कि सद्विचार हवा में फैला देना अच्छा है। उसे जमीन में बोने से उसका कुछ बनता है। किंतु उसके नीचे चन्द लोग ही आकर बैठ सकते हैं, वह सीमिति हो जाता है। इसके विपरीत जो विचार हवा में फैलता है, वह हरेक के हृदय को छूता है और कहीं का कहीं, दूर-ंउचयदूर तक चला जाता है। इसके बिना शंातिमय क्रांति नहीं हो सकती। गांधी मार्ग से संक्षिप्त