Tuesday, October 24, 2017

अक्ल से अमल हो : जवाहरलाल नेहरू


अक्ल से अमल हो

जवाहरलाल नेहरू

प्रश्न : गाय के मामले पर हिंदू धर्मं और उससे निकले हुए बौध, सिखा और जैन वगेरा धर्मों के मानने वालों में जो गहरी भावना है उसको ध्यान में रखते हुए गोवध बंद करने का आपने क्या उपाय सोचा है ?
नेहरूजी : जो बात आपने कही कहाँ तक एतिहासिक रूप से सही है इसमें संदेह हैबौध देश में जायें तो कोई बह्वना इसी नहीं है जरा भी। हा जैन मैं हैवो भावना अहिंसा की हो, सब जानवरों की हो, वो दूसरी बात हैलेकिन खास गाय के लिए हो और जानवरों की हो यही बात आप कह रहे हैंप्रथम तो यह याद रखने की बात है के हिंदुस्तान में जहाँ दूध का आदर है वहां सबमे बुरा हॉल है इन गायों का और इन मवेशियों का। यूरोप, अमेरिका वगेरा एशिया के और मुल्कों में इतना बुरा हाल नहीं हैतो यह क्या बात है ? यानि महज यहाँ बात नहीं हैं के हमारा देश गरीब है, कुछ तो बात बो जाती है, लेकिन वो काफी नही हैहम नहीं देखभाल करते हैं किसी की, किसी जानवर की भीहम उसको मारेंगे नहीं, हम उसको भूखा मर जाने देंगेयह बात कभी नहीं होगी के एक सड़क से किसी जानवर को जरा चोट लग जाए कोई घोड़ा है, कुछ है, पड़ा है, तो बहुत कम लोग उधर देखेंगेवो पड़ा रहेगा, वो चले जायेंगेयह बात यूरोप में कभी नहीं होगीफौरन कुछ लोग आयेंगे, उठेंगे, मदद करेंगे सड़क पर चलने वाले और पड़ोसी पूछेंगे क्या हुआ, करेंगे कुछ कुछकोई भावना उनकी पूजा की नहीं है जानवर की, लेकिन एक जानवर की मदद करने की हैऔर जहाँ भावना कुछ पूजा के ढंग की हुई तो उससे मामूली हमदर्दी निकल जाती है
दूसरे यह की गोवध के सवाल को हम देखें उसके आर्थिक रूप मेंऔर धर्मं के रूप को बिलफेल छोड़कर आर्थिक रूप में मने यह है की गाय की रक्षा हो उसकी तरक्की हो, दूध अच्छा होवो बात नहीं हो रही है यहाँ पूरी तौर से, कहीं कहीं हो, क्योंकि खाली कहने का ढंग की गोवध हो उसका नतीजा यह हो रहा है की अच्छी गाय कम होती जाती हैअच्छी से मेरा मतलब है जो अच्छा दूध देन वगेरा वो कम होती जाती है और सारा उनका स्टैण्डर्ड गिरता जाता है
मैं समझता हूँ की रक्षा आर्थिक वजुहत के लिए उसकी तरक्की हमारे लिए आवश्यक हैमेरे दिल में कोई उसमे धर्मं का सवाल नहीं अब मैंने यह खा तो लोग मुझसे नाराज हों गए मुझे जानवरों से भी प्रेम है लेकिन मुझे घोडो से भी प्रेम है जितना गाय से है क्या करूँ हैं मुझे ? मैं एक शेर के बच्चे को रखता हूँ उससे प्रेम हों गया हैतो जानवरों का मतलब है सबसे मुझे सब जानवरों से प्रेम है। मुझे उनको मारना पीटना अच्छा नहीं लगता हैदूसरी बात है। तो इस पे विचार करना चाहिए इस ढंग से, जिससे वो बात हों जो हम चाहते हैंखाली अन्दर के जोश में आकर कह देंगे बंद करो दरवाजे बंद कर देन, निकलने का रास्ता कहीं रखेंफिर सिवाय इसके के मुल्क एक पिंजरापोल हों जाए और कोई रास्ता नहीं रहतातो इस ढंग से इस पे विचार करना चाहिए। अब मैं समझता हूँ मेरी जो भी राय हों हमारे देश में अधिक जनता की भावना है गाय कीउसका मैं आदर करता हूँ, उस पर अमल होंलेकिन अक्ल से अमल हों


गोहत्या-बंदी और विनोबाजी की तपस्या

गोरक्षा सत्याग्रह : राष्ट्रीय परिस्थिति और सर्वोदय विचार

govigyan.org

Tuesday, March 1, 2016

संस्थाएं नारायण परायण बनें
विनोबा
मैं जरा एकांत मंे रहने वाला मनुष्य हूं। लेकिन जेल में तो समाज में ही रहना हुआ, और उसमें सोचने का काफी मसाला मिल गया। वहां सब तरह के लोगो से सम्पर्क हुआ। उसमें कांग्रेस वाले थे, समाजवादी थे, फार्वर्ड ब्लाक वाले और दूसरे भी थे। देखा कि ऐसा कोई खास दल नहीं, जिसमें दूसरें दलों की तुलना में अधिक सज्जनता दिखाई देती हो। जो सज्जनता गांधीवालों मे दिखाई देती है, वही दूसरों में भी दिखाई देती है, और जो दुर्जनता दूसरों में पाई जाती है वह इनमें भी दिखाई देती है। जब मैंने देखा कि सज्जनता किसी एक पक्ष की चीज नहीं तब सोचने पर इस निर्णय पर पहुंचा कि किसी खास पक्ष या संस्था में रह कर मेरा काम नहीं चलेगा। सबसे अलग रह कर सज्जनता की सेवा मु-हजये करनी चाहिए।
जेल से छूटने के बाद यह विचार मैंने गांधीजी के सामने रखा। उन्होंने अपनी भाषा में कहा -ंउचय ‘तेरा अभिप्राय मैं सम-हजय गया। तू सेवा करेगा लेकिन अधिकार नहीं रखेगा। यह ठीक ही है।’ इसके बाद जिन जिन संस्थाओं में मैं था, उनसे स्तीफा देकर अलग हो गया। वे संस्थाएं मु-हजये प्राण समान प्रिय थीं। उनके उद्देश्यों और कार्यक्रमों को अमल में लाने की कोशिश बरसों तक मैं करता रहा था। उनसे अलग होते समय दुःख जरूर हुआ, लेकिन आनन्द का भी अनुभव किया। क्योंकि उन संस्थाओं की मदद तो मैं करने वाला ही था।
गांधीजी की मृत्यु के बाद सेवाग्राम में हुई सभा में हमने तय किया कि अपनी संस्था को किसी व्यक्ति का नाम देना ठीक नहीं होगा। इसलिए गांधी-ंउचयसंघ जैसे नामों के बदले ‘सर्वोदय समाज’ ही नाम रखा गया।
‘संघ’ न कहते हुए जो ‘समाज’ शब्द रखा है वह साहित्यिक दृष्टि से नहंीं, बल्कि इसके पीछे एक विचार है। ‘संघ’ शब्द में विशिष्ट अर्थ है। उसमें व्यापकता की कमी है। इसके विपरीत ‘समाज’ व्यापक है और ‘सर्वोदय’ शब्द के कारण उसकी व्यापकता परिपूर्ण हो जाती है। अगर ‘संघ’ नाम रखा जाता तो वह छोटी -ंउचयसी संस्था बन जाती। फिर उसमें कोई लिया जाता, तो कोई न भी लिया जाता। उसके नियम बनते, अनुशासन रखा जाता और उसे न मानने वालों के विरूद्ध अनुशासन भंग की कार्यवाहियां होती। संघ तो एक ऐसी संस्था है, जिसमें विशिष्ट व्यक्तियों को ही अवसर मिलता है। उसमें वह व्यापकता और स्वतंत्रता नहीं होती, जो मनुष्य के विकास के लिए जरूरी है।
मैंने ऐसी कई संस्थाएं देखी हैं, जिनका आरंभ तो अच्छे उद्देश्य से हुआ, लेकिन आगे उनके कार्याें में दोष उत्पन्न होने लगे। फिर उन दोषों का बचाव किया जाता है। वे छिपाकर भी रखे जाते हैं। फिर वृत्ति बदल जाती है और टुकड़े होने लगते हैं। मु-हजये टुकड़े नहीं चाहिए, अख्ंाड आनन्द का अनुभव मु-हजये लेना है।
मेरा अपना बुनियादी विचार है कि सद्विचार हवा में फैला देना अच्छा है। उसे जमीन में बोने से उसका कुछ बनता है। किंतु उसके नीचे चन्द लोग ही आकर बैठ सकते हैं, वह सीमिति हो जाता है। इसके विपरीत जो विचार हवा में फैलता है, वह हरेक के हृदय को छूता है और कहीं का कहीं, दूर-ंउचयदूर तक चला जाता है। इसके बिना शंातिमय क्रांति नहीं हो सकती। गांधी मार्ग से संक्षिप्त

अगर-मगर के बीच डोलती गोवंश रक्षा


अगर-मगर के बीच डोलती गोवंश रक्षा

डॉ..पुष्पेंद्र दुबे


भारत में गोरक्षा का प्रश्न अत्यंत संवेदनशील है। पिछले दिनों देश में हुए घटनाक्रम में यह बात एक बार फिर सिद्ध हुई। इतने नाजुक मसले पर अपरिपक्व तरीके से विचार व्यक्त करने का यह पहला अवसर होगा। इस प्रश्न को लेकर देश में ऐसी बयानबाजी की गयी, जिसने बुद्धिजीवियों के ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। इस देश के प्राणाधार गोवंश के बारे में इतनी अज्ञानता अचानक नहीं है, बल्कि आजादी के बाद अपनायी गयी विकास प्रक्रिया का नतीजा है। आज के सारे व्यवहार में ग्रामाभिमुख चिंतन का अभाव इन बयानवीरों में दिखाई देता है। समाचार पत्रों के अनेक अग्रलेखों में गोरक्षा से संबंधित अनेक तथ्य दिए गए, परंतु उनका चिंतन बूढ़े पशुओं की देखभाल पर आकर रुक गया। अनेक तर्क-कुतर्कों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि गोरक्षा जैसे प्रश्न पर चिंतन करना आज के जमाने में कालबाह्य है। आज जबकि केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार है, तब गोहत्याबंदी पर पूर्ण प्रतिबंध को लेकर अगर-मगर की नीति अपनायी जा रही है। गोमांस निर्यात पर रोक लगाने के लिए व्यावहारिकताका तर्क दिया जा रहा है। मांस निर्यात पर प्रतिबंध लगाने में न तो किसी प्रकार के संविधान संशोधन विधेयक की आवश्यकता है और न ही किसी आंदोलन की राह देखने की जरूरत है। यह नीतिगत मुद्दा है जिसे सरकार तत्काल प्रभाव से लागू कर सकती है। लेकिन डालरका लालच और तथाकथित विकास को निर्धारित करने वाले मानदंड सालों से सरकार को कदम उठाने से रोक रहे हैं। अब जबकि पूर्ण बहुमत हासिल हो गया है, तब व्यावहारिकताका अडंगा लगाया जा रहा है। देश में बढ़ती महंगाई और किसानों की आत्महत्या के लिए भारत की मांस निर्यात नीति भी जिम्मेदार है। सरकार मशीनीकरण और खेती के आधुनिकीकरण के लिए देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए उदार नीतियां बना रही हैं। मौसम की मार और महंगाई के आगे किसान बेबस है। ऐसे में गोवंश रक्षा और मांस निर्यात पर प्रतिबंध के अलावा और कौन-सा रास्ता सरकार के पास शेष रहता है ? ‘जय जवान जय किसानके नारे के बल पर जिस भारत ने खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल की थी, आज हम पुनः परावलंबी होते जा रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो गरीबों के लिए प्रोटीन का सबसे अच्छा साधन दाल को आयात नहीं करना पड़ता। ऐसा जान पड़ता है कि भारत के जो गांव आज थोड़े बहुत अपनी जरूरतों के मामले में स्वावलंबी हैं, आदर्श गांव में बदलने पर वे पूरी तरह शहरों पर आश्रित हो जाएंगे। गोवंश को केंद्र में रखे बिना गांव की जो भी योजना बनाई जाएगी, वह अपूर्ण और गांव को परावलंबी बनाने वाली सिद्ध होगी। योजनाकारों को कृषि और ग्रामीण सभ्यता के रक्षण के लिए तत्काल सलाह-मशविरे की ओर कदम बढ़ाना चाहिए, जिससे राजनीतिक हितों से उपर उठकर देशहित में समग्र चिंतन और कार्य किया जा सके।

इक्कीसवीं सदी की हिंदी: संदर्भ और चुनौतियां
भारतीय हिंदी परिषद का 42वां अधिवेन संपन्न

डॉ.पुष्पेंद्र दुबे


भारतीय हिंदी परिषद इलाहबाद का 42वां अधिवेशन राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में 12 और 13 दिसंबर को संपन्न हुआ। इस अधिवेशन का मुख्य विषय इक्कीसवीं सदी की हिंदी: संदर्भ और चुनौतियां था। इस अधिवेशन में देश-विदेश के 500 प्रतिभागियों ने भाग लिया। अधिवेशन में विद्वान वक्ताओं का सम्मिलित स्वर यही था कि भाव और विचार की अभिव्यक्ति के लिए एकमात्र सशक्त माध्यम भाषा ही है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के युग में हिंदी विश्वस्तर पर संपर्क भाषा बनने में पूर्ण सक्षम है। आजादी के आंदोलन में हिंदी ने अपनी ताकत से पूरे देश में स्वतंत्रता की चेतना को जाग्रत किया। हिंदी को निर्विवाद रूप से पूरे देश ने स्वीकार किया। आजादी के बाद बहुभाषीय भारतीय समाज में भाषा को लेकर विवाद की स्थिति निर्मित होती रही है। हिंदी के समक्ष चुनौतियां विद्यमान हैं। घरेलू स्तर पर भाषाई अस्मिता के नाम पर बंगला, तमिल, कन्नड़, मलयालम को हिंदी के विरोध में खड़ा किया जा रहा है तो दूसरी ओर हिंदी की बोलियां भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि को भी हिंदी के खिलाफ उकसाया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को अंग्रेजी के साथ द्वंद्व के लिए उभारा जा रहा है। संस्कृतनिष्ठ भाषा के आग्रही हिंदी में संस्कृत के शब्दों को यथावत स्वीकार करने के पक्ष में हैं तो अधिकांश हिंदी को सरल रूप में स्वीकार करने को तैयार बैठे हैं। अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा मानते हुए उसके शब्दों को ज्यों का त्यों अपनी भाषा में ध्वनि व्यवस्था के अनुसार बनाकर अपना लेना चाहिए, इसे मानने वाले भी बहुत लोग हैं। लेकिन यह प्रवृत्ति भाषा के लिए खतरनाक हो सकती है। इसे अपनाने के कारण ही आज हिंग्लीशभाषा सभी जगह दिखाई दे रही है। अधिवेशन में उपस्थित वक्ताओं ने हिंदी के समक्ष चुनौतियों की चर्चा करते हुए कहा कि हिंदी को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए हमें सुधार की शुरुआत घर से करना होगी। आज घरों में जिस प्रकार से अंग्रेजी का बोलबाला है। माता-पिता अपने बच्चों को जिस सांचे में ढाल रहे हैं, उससे भाषा के साथ-साथ संस्कृति को भी खतरा पैदा हो गया है। एक तरफ हिंदी विश्व की ओर बढ़ चली है। दुनिया के 200 विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा का अध्यापन किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी दस्तक दे रही है। इसके लिए भारत सरकार हर स्तर पर प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर हमारे देश की विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षा अंग्रेजी के मोहपाश में तीव्रता से जकड़ती जा रही है। आज भी उच्च स्तरों पर विज्ञान विषय की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। अपनी भाषा में विचार न करने से हमारे यहां मौलिक खोज और शोध का अभाव आज भी दिखाई दे रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी भाषा को लेकर व्यक्तिगत प्रयास किए जा रहे हैं, परंतु शासन के स्तर पर आज भी अंगरेजी ही प्रथम पायदान पर है। इसके बावजूद आज हिंदी का बढ़ता दायरा इस बात के लिए आश्वस्त करता है कि वह विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। 

बेरोजगारी के आलम में डिग्री की इज्जत बचना मुश्किल


बेरोजगारी के आलम में डिग्री की इज्जत बचना मुश्किल

डॉ.पुष्पेंद्र दुबे


इन दिनों यह दृश्य आम हो चला है जब अपनी शैक्षणिक योग्यता को दरकिनार कर युवा वर्ग सरकारी नौकरी के नाम पर किसी भी पद पर कार्य करने को तैयार हैं। एमटेक, एमबीए, इंजीनियर की उपाधि प्राप्त युवा, भृत्य और चपरासी बनने को तैयार हैं, तब यही लगता है कि हमारी शिक्षा का स्तर कितना गिर गया है। जिस युवा ने लाखों रुपये खर्च कर उच्च शिक्षा की उपाधि हासिल की है, वह स्वयं को डिग्री के अनुरूप कार्य करने के अयोग्य पाता है। बड़वानी और ग्वालियर में ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं, जहां स्वीपर और चपरासी पद के इंटरव्यू के लिए उच्च शिक्षित युवा मौजूद थे। यह इस देश की विडंबना ही कही जाएगी कि कौशल युक्त उच्च शिक्षित युवा देश में काम नहीं करना चाहता और कौशलरहित युवा को देश में उसकी योग्यता के अनुरूप रोजगार नहीं मिल रहा है। वैश्वीकरण के दौर में तकनीक ने एक तरफ तो नौकरियों में जबर्दस्त कटौती की है, वहीं दूसरी ओर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में उच्च शिक्षित युवा वर्ग समाज में प्रवेश कर रहा है। ऐसे युवा वर्ग के पास कौशलरहित डिग्री है। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अध्यापन में संलग्न प्राध्यापक भी ऐसे किसी कौशल से अनजान हैं, जिससे अध्ययनरत युवाओं को अध्ययनकाल समाप्ति के बाद तत्काल रोजगार उपलब्ध कराया जा सके। अध्ययनकाल समाप्ति के बाद उसके पास केवल एक डिग्री होती है, जिसे लेकर वह नौकरी की आस में भटकता रहता है। भृत्य अथवा चपरासी अथवा सफाईकर्मी के पदों के लिए हजारों उच्च शिक्षित युवाओं द्वारा किए जा रहे आवदेन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। ऐसा लगने लगा है कि बेरोजगारी की परिभाषा बदलने के दिन आ गए हैं। सरकारों द्वारा पहली पंचवर्षीय योजना से ही रोजगार सृजन के लक्ष्य निर्धारित किए जाते रहे हैं, परंतु उसमें सरकारें हमेशा विफल रही हैं। नौकरी और डिग्री के संबंध ने हुनरमंद युवाओं को हमेशा ही दोयम दर्जे का सिद्ध किया है। एस्पायरिंग माइंड्स ने नेशनल एंप्लायबिलिटी रिपोर्ट में यह खुलासा किया है कि शिक्षण संस्थान लाखों युवाओं को डिग्री तो दे रहे हैं, लेकिन कंपनियों को लगता है कि इन युवाओं के पास काम के लिए जरूरी प्रतिभा और कौशल नहीं है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और सरकार की नीतियों ने परंपरागत व्यवसाय करने वाले लोगों को अपने व्यवसाय से विमुख कर दिया है। आज युवाओं में पुश्तैनी व्यवसाय को आगे बढ़ाने में बिलकुल दिलचस्पी नहीं है। यह बात भी सही है कि वर्तमान आर्थिक व्यवस्था में उन्हें अपना पुश्तैनी व्यवसाय बचाना कठिन होता जा रहा है। ऐसे में उन्हें विकल्प के तौर पर सरकारी नौकरी नजर आ रही है। नौकरी और डिग्री का संबंध समाप्त कर देना चाहिए अन्यथा डिग्रियों को अपनी इज्जतबचाना कठिन हो जाएगा। जब तक उच्चतर माध्यमिक स्तर और उच्च शिक्षा स्तर पर कौशलयुक्त शिक्षण व्यवस्था को लागू नहीं किया जाएगा, तब तक स्टार्टअप अथवा स्किल इंडिया प्रोग्राम का देशव्यापी स्तर पर सफल हो पाना कठिन है।